आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद्धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ।।
किसी कष्ट अथवा आपत्तिकाल से बचाव के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए और धन खर्च करके भी स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए, परंतु स्त्रियों और धन से भी अधिक आवश्यक यह है कि व्यक्ति अपनी रक्षा करे। ।।6।।
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह आपत्ति अथवा बुरे दिनों के लिए थोड़ा-थोड़ा धन बचाकर उसकी रक्षा करे अर्थात धन का संग्रह करे। समय पड़ने पर संचित धन से भी अधिक अपनी पत्नी की रक्षा करना आवश्यक है क्योंकि पत्नी जीवनसंगिनी है। बहुत से ऐसे अवसर होते हैं, जहां धन काम नहीं आता, वहां जीवनसाथी काम आता है। इसी संदर्भ में वृद्धावस्था में पत्नी की अहम् भूमिका होती है।
चाणक्य का विचार यह भी है कि धन और स्त्री से भी अधिक व्यक्ति को अपनी रक्षा करनी चाहिए अर्थात व्यक्ति का महत्व इन दोनों से अधिक है। यदि व्यक्ति का अपना ही नाश हो गया तो धन और स्त्री का प्रयोजन ही क्या रह जाएगा, इसलिए व्यक्ति के लिए धन-संग्रह और स्त्री रक्षा की अपेक्षा समय आने पर अपनी रक्षा करना अधिक महत्वपूर्ण है।
देखने में आया है और उपनिषद् के ऋषि भी कहते हैं कि कोई किसी से प्रेम नहीं करता, सब स्वयं से ही प्रेम करते हैं – आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति ।
आपदर्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतां कुत आपदः।
कदाचिच्चलिता लक्ष्मीः सञ्चितोऽपि विनश्यति ।।
आपत्तिकाल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन सज्जन पुरुषों के पास विपत्ति का क्या काम। और फिर लक्ष्मी तो चंचला है, वह संचित करने पर भी नष्ट हो जाती है। ।।7।।
चाणक्य का कहना है, मनुष्य को चाहिए कि वह आपत्तिकाल के लिए धन का संग्रह करे। लेकिन धनी व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि उनके लिए आपत्तियों का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वे अपने धन से सभी आपत्तियों से बच सकते हैं, परंतु वे यह नहीं जानते कि लक्ष्मी भी चंचल है। किसी भी समय वह मनुष्य को छोड़कर जा सकती है, ऐसी स्थिति में यह
इकट्ठा किया हुआ धन भी किसी समय नष्ट हो सकता है।