निर्वाण षट्कम (Nirvana Shatkam) : खुद से जीतना

निर्वाण षट्कम (Nirvana Shatkam)  : खुद से जीतना

निर्वाण षट्कम (Nirvana Shatkam) एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक है जो शंकराचार्य द्वारा लिखा गया था। यह षट्कम (षट्- छः, कम्- प्रकार) छह श्लोकों से मिलकर बना है, जो आत्मा के अद्वितीयता को समझाने का प्रयास करते हैं। इस षट्कम में आत्मा को स्वरूप, गुण, धर्म, विभूति, कर्म और फल के सम्बन्ध में बताया गया है।

निर्वाण षट्कम, जिसे भगवान शंकराचार्य ने रचा है, एक आध्यात्मिक ग्रंथ है जो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की अद्वितीय गुणधर्मों को प्रस्तुत करता है। यह षट्कम (षट्क: छः, कम: ग्रन्थ) छः श्लोकों से मिलकर बना है और इसमें अद्वैत वेदांत के मूल सिद्धांतों का सार दिखाया गया है।

शंकराचार्य ने इस ग्रंथ के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि आत्मा केवल ब्रह्म है और इस संसार के सभी धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव अंततः माया के विभास के रूप में हैं। वे कहते हैं कि सच्ची स्वतंत्रता और आनंद केवल आत्मा में है, जो कि इस संसार के सभी रंगों और रागों से परे है।

निर्वाण षट्कम के इस प्रमुख भाव के अनुसार, सत्यानन्द स्वरूप आत्मा को जानने के लिए हमें इस संसार के मोह और आसक्तियों से परे होना चाहिए। इस ग्रंथ में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के माध्यम से आत्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया है, जो संसारिक रंगों और रागों को पार करके अद्वैत ब्रह्म ज्ञान की अनुभूति को संभव बनाता है।

निर्वाण षट्कम (Nirvana Shatkam) एक प्रमुख वेदान्तिक ग्रंथ है, जो शंकराचार्य द्वारा लिखा गया था। यह ग्रंथ आत्मा की परम आत्मा में समाहित होने का ज्ञान प्रदान करता है। यह षट्कंठ अर्थात छह श्लोकों का संग्रह है, जो आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं और वेदान्ती सिद्धांतों को सार्थकता के साथ प्रस्तुत करते हैं।

यहां निर्वाण षट्कम के श्लोकों का एक अनुवाद दिया गया है:

1. “मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं,

न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।

न च व्योम भूमिर् न तेजो न वायुः,

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”

यह श्लोक भगवद् गीता में अवगत है। इसमें यह बताया गया है कि आत्मा (जीवात्मा) न केवल मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के संगठन में है, न ही वह इंद्रियों में स्थित है जैसे कि कान, जीभ, नाक और नेत्रों में, न ही वह पंचभूतों में है – आकाश, पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल में। यहाँ आत्मा का वास्तविक स्वरूप “चिदानन्दरूपः” है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है। इस श्लोक में यह बताया गया है कि आत्मा शिव है, जो कि परमात्मा का ही अभिन्न अंश है।
यह षट्कंठ आत्मा की निष्कल्प और अद्वितीय स्वरूपता का महत्त्वपूर्ण संकेत है, जो शंकराचार्य के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। इसमें सभी प्राणी का आत्मा ही शिव (ईश्वर) है, जो सच्चिदानंद स्वरूप में अविकल्पित और अद्वितीय है।

2 “न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः,

न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोषः।

न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायौ,

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”

इस श्लोक में भी यह बताया गया है कि आत्मा का स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है। यहाँ भी बताया गया है कि आत्मा न केवल प्राण (शरीर की जीवन शक्ति) में है, न ही पंचवायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान) में, न सप्तधातु (रक्त, मांस, मज्जा, मेडा, अस्थि, मज्जा, शुक्र) में, और न पंचकोष (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में। आत्मा न तो वाणी, न हाथ, पैर और न ध्यान के लक्षणों में स्थित है। यहाँ भी वार्तालाप और शारीरिक श्रृंगार के माध्यम से भी बताया गया है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है।

3 “न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ,

मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”

इस श्लोक में भी आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया गया है। यहाँ बताया गया है कि आत्मा को न तो द्वेष (घृणा) और राग (मोह), न लोभ (लालच) और मोह (मोहित होना), न मद (अहंकार) और न मात्सर्य (ईर्ष्या) की भावना होती है। इसके अलावा, धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के भी प्रति आत्मा का कोई संबंध नहीं होता। आत्मा का स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है। यहाँ भी यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा का स्वरूप अनन्त और निर्मल है, और उसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होता।

4″न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं,

न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः।

आहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”

इस श्लोक में यह बताया गया है कि आत्मा का स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है। यहाँ आत्मा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि आत्मा को पुण्य, पाप, सुख, दुःख, मन्त्र, तीर्थ, वेद और यज्ञ की प्राप्ति में कोई अभिलाषा नहीं होती। आत्मा न केवल भोजन करने वाला है, न ही भोजन का विषय है, और न ही भोजन का अनुभव करने वाला है। इस श्लोक में भी आत्मा का वास्तविक स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है।

5 “न मृत्युर् न शंका न मे जातिभेदः,

पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः,

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”

यह श्लोक भी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन करता है। यहाँ आत्मा का स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है। श्लोक में यह कहा गया है कि आत्मा को मृत्यु का भय नहीं होता, न किसी भी भेदभाव की चिंता होती है, न किसी जन्म की प्राप्ति में अभिलाषा होती है। आत्मा को पिता, माता, जन्म, बन्धु, मित्र, गुरु या शिष्य के रूप में किसी भी संबंध की आवश्यकता नहीं होती है। इस श्लोक में भी आत्मा का वास्तविक स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है।

6 “अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो

विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।

न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयः,

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥”

इस श्लोक में आत्मा का स्वरूप वर्णित किया गया है। यहाँ कहा गया है कि आत्मा निर्विकल्प (भिन्नता से रहित) और निराकाररूप (बिना किसी आकार के) है। इसके अतिरिक्त, आत्मा सब जगह व्याप्त है और सभी इंद्रियों के विषय में है। यहाँ यह भी कहा गया है कि आत्मा को किसी संगठन में नहीं बांधा जा सकता है, और न ही वह किसी भी विषय का विषय है। आत्मा का स्वरूप चिदानन्दरूप है, जो कि ज्ञान, आनंद और शांति की अद्वितीय स्वरूप है।

निर्वाण षट्कम काफी गहरा और मानो अत्यंत साधारण भावनाओं से परे होता है। इसमें राग और रंगों का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि यह आत्मा के परिपूर्णता और मोक्ष की अवस्था का वर्णन करता है। यह षट्कम आध्यात्मिक ग्रंथों में मुख्य रूप से उपलब्ध है और इसके माध्यम से मनुष्य का आत्मचिंतन और आत्मसमर्पण होता है। इसमें साधना, समाधि और निर्वाण के मार्ग का वर्णन किया गया है, जो अध्यात्मिक साधना के उद्देश्य को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

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